वित्त और मितव्ययिता

 

 सबसे पहले, आर्थिक दृष्टिकोण से, जिस सिद्धान्त पर हमारा काम आधारित हैं वह है : मुद्रा मुद्रा कमाने के लिए नहीं हैं । यह विचार कि मुद्रा को मुद्रा कमानी चाहिये मिथ्यात्व पर आधारित है और विकृत है ।

 

   मुद्रा किसी दल, देश या ज्यादा अच्छा तो यह है कि समस्त पृथिबी की धन-संपत्ति, समृद्धि और उत्पादकता बढ़ाने के लिए हो । मुद्रा अपने- आपमें उद्देश्य नहीं है, वह साधन, बल और शक्ति हैं । और, सभी बलों और शक्तियों की तरह, इसकी शक्ति गति और संचार से बढ़ती है, संचय और गतिरोध से नहीं ।

 

   हम जिस चीज के लिए यहां प्रयास कर रहे हैं वह है संसार के आगे, ठोस उदाहरण के द्वारा, यह प्रमाणित करना कि आन्तरिक मनोवैज्ञानिक उपलब्धि और बाह्य व्यवस्था और संगठन के द्वारा एक ऐसा जगत् बनाया जा सकता हैं जहां मानव दुःख-क्लेश के अधिकतर कारण समाप्त हो जायेंगे ।

 

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एक मित्र आपके लिए धन इकट्ठा करना चाहता हे  । वह कहता है कि अगर आप आर्थिक सहायता के लिए लोगों के पास जाने के बारे में कुछ वक्तव्य लिख दे तो उसे बहुत मदद मिलेगी ।

 

मुझे किसी से पैसा लेने के बारे में लिखने की आदत नहीं है । अगर लोग यह अनुभव नहीं करते कि अपना धन भगवान् के काम के लिए दे सकना उनके लिए एक बहुत बड़ा सुअवसर और ' कृपा ' है, तो यह उनका दुर्भाग्य है! काम के लिए धन की जरूरत है-धन आकर रहेगा; यह देखना बाकी है कि उसे देने का सौभाग्य किसे मिलेगा ।

 

२४ अप्रैल, १९३८

 

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धन मेरा नहीं है, धन आश्रम का है और आश्रम धन उधार नहीं देता । वह किसी पर ऐसा विशेष उपकार भी नहीं कर सकता, और विशेष रूप से

 

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तब जब कि वह आदमी आश्रम के प्रति बहुत वफादार न रहा हो ।

 

२० अप्रैल, १९५१

 

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मुझे तुम्हारे पत्र मिल गये हैं और मैंने इस विश्वास के साथ कि तुम अन्तरंग संदेश पाने मे समर्थ हो, उनका आन्तरिक रूप सें उत्तर दे दिया है ।

 

  लेकिन मुझे लगता है कि मैंने तुम्हें जो लिखा था उसमें कुछ और जोड़ने की जरूरत है ।

 

   लोगों के पास जाकर धनराशि इकट्ठा करने का कोई प्रश्न हीं नहीं है । किया यह जा सकता है कि कोई एक आदमी, या कोई वित्तीय संगठन, या कोई धर्मादा ऐसा खोजा जाये जो ऐसी स्थिति में हों जो पूरा आवश्यक धन दे सके और जो इस साहस-कार्य मे जाने के लिए, कुछ और बहुमूल्य करने के लिए खतरा झेलने को तैयार हो ।

 

   ऐसा व्यक्ति या ऐसे लोग मौजूद हैं । प्रश्न केवल दोनों ध्रुवों को मिलने का है ।

 

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पचास हजार या एक लाख जैसी छोटी रकम इकट्ठी करने के लिए तुम्हें उनकी सहायता न मांगी चाहिये । तुम्हें उनके पास गरिमा और अपने उद्देश्य के महत्त्व के भाव के साथ जाना चाहिये । यह कभी न भूलो कि यह कोइ सामान्य और उथला काम नहीं हैं, बल्कि यह आत्मा का काम है और निश्चय ही किया जायेगा । हम इन लोगों से दान नहीं मांग रहे, यह उन लोगों को अपनी अन्तरात्मा के निकट आने का अवसर दिया जा रहा है । काम शुरू करने से पहले, मुझे बुलाओ, और मैं वहां रहूंगी । मेरा बल हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।

 

१७ दिसम्बर, १९५२

 

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तुम्हें यह जानना चाहिये कि तुम्हें जिस चीज के अत्यधिक जड़-भौतिक और बाहरी रूप में ताल-मेल बिठाना होगा वह केवल एक उद्योग या

 

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उधेगों का एक दल नहीं है, न वह किसी प्रशासन का एक विभाग है और न ही किसी राज्य की सेवा है, बल्कि वह लघु आकार मे छोटा-सा जगत् हैं जिसमें मानव समुदाय की सभी संभावनाएं और साथ ही नयी और अभी तक अज्ञात संभाव्यताएं छिपी हुई हैं और अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा में हैं ।

 

  तुम संगठन का एक बीजांकुर पहले से ही तैयार पाओगे जिसमें समन्वय का केन्द्र है '' भागवत उपस्थिति '' का प्रतीक जो ' विश्व के एकमेव परम स्वामी ' का प्रतिनिधित्व करता है । क्योंकि यहां सभी कार्य प्रभु को अर्पित हैं, जो सर्व हैं और जिनके अन्दर सब कुछ साम्या हुआ है । और सभी कार्य किसी निजी लाभ के लिए नहीं बल्कि प्रेमोपहार के रूप मे किये जाते हैं, क्योंकि प्रेम की शक्ति हीं एकमात्र शक्ति है जिसे हम सुव्यवस्थित कर सकते हैं; और मैं केवल एक प्रतीक और सन्देशवाहक के रूप में हूं ताकि रास्ता दिखा सकूं और प्रयासों को एक कर सकूं ।

 

   व्यावहारिक रूप में, अगर हमारे पास धन की कमी जस कम होती, तो बहुत-सी कठिनाइयां गायब हो जाती ।

 

   हमें हर चख के बारे में सावधान रहना पड़ता हैं और इस कारण बहुत-सी उपयोगी चीजें नहीं की जाती ।

 

   तो, अगर तुम एक या अधिक ऐसे लोग पा सको जिन्हें इस महान् उद्यम, बल्कि साहसिक कार्य में रस हो-क्योंकि यह एक नये जगत् के निर्माण से जस भी कम नहीं है- और अगर वे सचमुच आर्थिक दृष्टि से उपहार या उधार दुरा सहायक हों, तो हम ज्यादा तत्परता और पूर्णता से अपने प्रयत्न में आगे बढ़ सकेंगे ।

 

   तो संक्षेप में स्थिति यह हैं । अगर तुम ज्यादा ब्योरा चाहो, तो वह भी दिया जा सकता है ।

 

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यह मानना बडी भूल है कि मैं केवल कुछ स्वार्थी और कामनाओं से भरे रहने वाले लोगों की मांगो को पूरा करने के लिए कुछ लोगों की निःस्वार्थ गतिविधि को स्वीकार करूंगी । अहंकारपूर्ण लोभ का समय लद गया; प्रत्येक को मितव्यय के प्रयत्न मै भाग लेना होगा ।

 

२२ जून, १९४०
 

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भारतवर्ष की वर्तमान परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए जहां युद्ध की समाप्ति के बाद भी मुहैया करने और लानेले जाने की कठिनाइयां कम नहीं हुई हैं (विशेष रूप से खाद्य पदार्थों की), मैं आश्रमवासियों से यह निवेदन करने के लिए बाधित हूं कि उन्हें किसी भी प्रकार के और विशेषकर खाद्य पदार्थों के अपव्यय से बचने के लिए पूरी तरह सावधान रहना चाहिये । कितने सारे लोगों की जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हों रहीं ।

 

१९४५ या, १९४६

 

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आश्रम ये पैसे की कठिनाई हो रही है फिर धी लोग अपना पूरा- पूरा हिस्सा मांगने पर अड़े रहते हैं. अपने विधार्थीकाल में हम लोग बांड या भूकम्प- पीड़ितों की सहायता के लिए उपवास किया करते थे ।

 

दुर्भाग्यवश (?) वर्तमान कठिनाई न तो बाढ़ के कारण है, न अकाल के कारण; न लड़ाई है, न भुकम्प और न आगजनी । ऐसी कोई चीज नहीं हैं जो मानवीय भावनाओं को झकझोर दे और कुछ समय के लिए उनकी '' आवश्यकता '' कहानी वाली भौतिक कामनाओं को दबा दे ।

 

   पैसे की कठिनाई साधारणत: आदमी को विद्रोही नहीं तो शुष्क बल्कि कटु भी बना देती है । और मैं ऐसे कुछ लोगों को जानती हूं, जो मेरे पास आवश्यकता के अनुसार पूरा पैसा न होने के कारण अपनी श्रद्धा खेने की सीमा तक पहुंच गये हैं !

 

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जब पैसे की कमी हो तो उसके स्थान पर सद्भावना और व्यवस्था के असीम प्रयास को लाना चाहिये । में उसी प्रयास की मांग कर रही हूं, वह है तम और प्रमादपूर्ण उदासीनता पर विजय ।

 

   मैं नहो चाहती कि कोई भी हथियार डाल दे, मैं चाहती हू कि हर एक अपने- आपसे ऊपर उठ जाये ।

 

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  ' ' अब आश्रम के काम करता;  और बहुतों की तरह वह धी रहता तो आश्रम में और काम अपना करता है

 

 ठीक यही चीज आश्रम को आर्थिक बरबादी की ओर लिये जा रही है ।

 

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' ' हमारे पड़े ले नारियल तोड़ लेता है ! इस बार जब वह नारियल लेने आया तो मैंने कह कि उनमें जो बहुत अच्छे है में दशकों के लिए और आश्रम के बच्चों के रखूंगा, उन्हें न तोडे

 

 आश्रम के लोगों को वह सब मिलता हैं जिसकी उन्हें सचमुच जरूरत हों । मैं दर्शकों को फलफूल: बांटना पसन्द नहीं करती । यह केवल लोभ और कामना और अनुशासनहीनता को प्रोत्साहन देना हैं । और अगर हर एक वही करता जाये जिसे वह सवोत्तम समझता है, तो सारी व्यवस्था-प्रणाली अराजकता के कगार पर होगी ।

 

१५ मई, १९५४

 

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अगर भगवान् के प्रति सच्चे समर्पण की वृत्ति के साथ व्यापार नहीं किया जा सकता, तो आश्रम में व्यापार बन्द कर दिया जायेगा और उसकी मनाही कर दी जायेगी, जैसे इसी कारण से राजनीति की मनाही हैं ।

 

   तो अगर साधकों की चेतना घपले और तुच्छता की इस दु खद स्थिति मे से निकल न आटो, तो मैं अपने लिए यह जरूरी मानूंगी कि सब प्रकार के व्यापारिक धन्धों की मनाही कर दूं क्योंकि तब यह प्रमाणित हो चुकेगा कि उन्हें सच्ची भावना के साथ करना संभव नहीं है ।

 

२७ मई,१९५५

 

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